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गीत इक और लिखूँ, वो भी तुम पर लिखूँ – मोहन अबोध

कई बार गीत को किसी छंद में या नियम में बाँध दिया जाता है जिससे गीति की सुन्दरता और भी बढ़ जाती है| लेकिन कई बार ऐसा भी होता हैं की गीत को बंधन से मुक्त रखना होता है | प्रस्तुत गीत मोहन अबोध जी की कलम से निकला है आप गीत को पढ़ें और अन्य लोगों तक साझा करें …..

गीत के पहलुओं में सदा तुम रहे,

गीत तुम पर लिखे गीत तुम पर कहे….

फिर भी सारे ज़माने की आवाज़ है

गीत इक और लिखूँ वो भी तुम पर लिखूँ …..

तुम मेरे गीत की आवाज़ हो,

तुम मेरी प्रीति हो गीत की साज हो….

इस ज़माने को कैसे बताएं ये हम,

इस मेरे गीत में सिर्फ तुम ही तो हो….

अब मेरे गीत को कोई कुछ भी कहे….

गीत के पहलुओं में सदा तुम रहे,

गीत तुम पर लिखे गीत तुम पर कहे….

फिर भी सारे ज़माने की आवाज़ है

गीत इक और लिखूँ वो भी तुम पर लिखूँ ..

भावना गीत की जब भी भटकी कभी,

तब मेरे गीत की प्राण तुम बन गयी….

आज भी यह मेरा गीत उलझा सा है…

पर मेरे गीत में फिर भी तुम ही तो हो….

अब मेरे गीत को कोई कुछ भी कहे….

गीत के पहलुओं में सदा तुम रहे,

गीत तुम पर लिखे गीत तुम पर कहे….

फिर भी सारे ज़माने की आवाज़ है

गीत इक और लिखूँ वो भी तुम पर लिखूँ ….

हां एक दिन ऐसा भी आयेगा प्रिय.

जब लिखूंगा मै आखिरी गीत को,

मौत के सामने मोक्ष्य के लिए

तुम कहोगी रुको मैं कहूंगा नहीं…

अब मेरे गीत को कोई कुछ भी कहे….

गीत के पहलुओं में सदा तुम रहे,

गीत तुम पर लिखे गीत तुम पर कहे….

फिर भी सारे ज़माने की आवाज़ है

गीत इक और लिखूँ वो भी तुम पर लिखूँ …..

….मोहन अबोध

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