नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे - होली कविता – (Holi kavita) सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" जी ने 1932 लिखी थी जिसका प्रकाशन “जागरण” पाक्षिक काशी 22 मार्च 1932 में किया गया था|

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे  – होली कविता – (Holi kavita)

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे  – होली कविता –(Holi kavita) सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” जी ने 1932 लिखी थी जिसका प्रकाशन “जागरण” पाक्षिक काशी 22 मार्च 1932 में किया गया था|

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली !

जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,

दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-

मली मुख-चुम्बन-रोली ।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,

एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली-

कली-सी काँटे की तोली ।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,

खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली-

बनी रति की छवि भोली ।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,

उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली

रही यह एक ठिठोली ।

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

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