रामधारी सिंह दिनकर

समर शेष है – रामधारी सिंह “दिनकर”

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर” जी हमेशा ऐसे पहलू पर अपनी कविताओं के मध्यम से प्रकाश डालते रहे हैं जो समाज व देश के लिए आवश्यक हैं| समर शेष है (Samar Sheshh hai) कविता, दिनकर जी ने भारत देश की आज़ादी के बाद लिखा था| इस कविता की उपज का प्रमुख कारण दिनकर जी का असंतोष था, क्योकि दिनकर जी का मानना था कि देश की आजादी के बाद देश की प्रगति में चार चाँद लग जायेगें परन्तु ऐसा हुआ नहीं| यथोचित प्रगति दिनकर जी को दिखी नहीं……राष्ट्र में भुखमरी, गरीबी और आतंरिक असुरक्षा का माहौल था |

कविता – समर शेष है – Samar Sheshh hai

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,

किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो?

किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले!

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है

माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा

जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा

धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे

अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो

पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे

समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर

खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

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समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना

सावधान! हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना

बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध|

————–रामधारी सिंह “दिनकर”

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