सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

प्रेम के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” जी की कविता “प्रेम के प्रति” एक अद्भुत और भाषा समृद्ध कविता है| इस कविता में कवि प्रेम के प्रति अपनी भावनाएं प्रकट कर रहा है | निराला जी की इस कविता को पढ़िए और उनका मनोदसा को समझने का प्रयास करिए…

“…प्रेम के प्रति…”

चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम-अनादि-तब-केवल-तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर,
हुए तरंगित सृष्टि-विषम।
तत्वों में त्वक बदल-बदल कर,
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।

वसन-वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध-बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब,
क्षीण बुद्धि – भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह,
प्रेम, प्रेम की थी छाया।

प्रेम, सदा ही तुम-असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी,
गुँथे न कभी, सदा ही सार।

सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

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