बिहारी

बिहारी के दोहे

बिहारी ( Bihari)

सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।

अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।

घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।

पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।

मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।

यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।

जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।

को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।

रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।

कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।

गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।

वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।

फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।

सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।

बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।

मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।

कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।

कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।

नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।

नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,

तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।

कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।

तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।


मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥

अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥

पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥

इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥

सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥

बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥

गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥

मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥

इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।

चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।


भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।

सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।


पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास॥


कहति नटति रीझति खिझति, मिलति खिलति लजि जात।

भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥


छला छबीले लाल को, नवल नेह लहि नारि।

चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि।


सघन कुंज घन, घन तिमिर, अधिक ऍंधेरी राति।

तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥


बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥


कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।

पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥


दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥


पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।

आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥


अंग-अंग नग जगमगैं, दीपसिखा-सी देह।

दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥


रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।

प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥


तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जल-जल छिरकाइ।

पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥


कर लै चूमि चढाइ सिर, उर लगाइ भुज भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥


कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।

तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥


कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।

काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥


भूषन भार सँभारिहै, क्यों यह तन सुकुमार।

सूधे पाय न परत हैं, सोभा ही के भार॥


लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।

भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥

——-बिहारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *