तुझे कैसे भूल जाऊँ – दुष्यंत कुमार
क्या कहते हैं कि समय सबको यथार्थ की दिशा का दर्शन करा देता है | दुष्यंत कुमार जी की कविता व गज़ल में एक अलग छवि देखने को मिलती है | दुष्यत जी कभी सत्ता पर तो कभी चरमराती व्यवस्था पर अपनी कलम से प्रहार करते हैं पर कभी कभी प्रेम में भी डूबे नज़र आते हैं |अवस्था बोध की दृष्टिकोण से लिखी गई यह रचना ….. तुझे कैसे भूल जाऊँ आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत है|
अब उम्र की ढलान उतरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
गहरा गये हैं खूब धुंधलके निगाह में
गो राहरौ नहीं हैं कहीं‚ फिर भी राह में–
लगते हैं चंद साए उभरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फैले हुए सवाल सा‚ सड़कों का जाल है‚
ये सड़क है उजाड़‚ या मेरा ख़याल है‚
सामाने–सफ़र बाँधते–धरते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
फिर पर्वतों के पास बिछा झील का पलंग
होकर निढाल‚ शाम बजाती है जलतरंग‚
इन रास्तों से तनहा गुज़रते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
उन निलसिलों की टीस अभी तक है घाव में
थोड़ी–सी आंच और बची है अलाव में‚
सजदा किसी पड़ाव में करते हुए मुझे
आती है तेरी याद‚ तुझे कैसे भूल जाऊँ।
…….दुष्यंत कुमार