मातृभाषा प्रेम पर दोहे – भारतेंदु हरिश्चंद्र
आधुनिक समय में जहाँ अंग्रेजी भाषा को बहुत महत्त्व मिल रहा है और लोग अंग्रेजी भाषा पढ़ने के उपरान्त स्वयं को विद्वान समझने लगते हैं | आधुनिक भाषाई भाग- दौड़ से कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के विचार कुछ भिन्न है| कवि का मानना कि “बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।”
……मातृभाषा प्रेम पर दोहे……..
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
भारतेंदु हरिश्चंद्र