तुर्क और अफगान हमलों से पहले का हिंदुस्तान, पुराना इतिहास
भारत की दशा और दिशा आज प्रश्न चिन्हों के घेरे में है; लेकिन क्या आपको पता है ? तुर्क और अफगान हमलों से पहले हिंदुस्तान क्या था, हिंदुस्तान की नीति कैसी थी और हिंदुस्तान की व्यवस्था कैसी थी?यदि बात करें उस दौर के हिंदुस्तान की, तो शंकराचार्य के “नीति सार” से प्रभावित था अपना हिंदुस्तान।
इस बात की स्वीकृति के लिए अगर मैं आपको प्रेरित करूँ तो यह मेरी आयु तथा मेरे अनुभव के अनुरूप नहीं है…..फिलहाल आपकी जानकारी के लिए एक बात बता रहा हूँ। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक पुस्तक लिखी थी “दी डिस्कवरी ऑफ इंडिया” जिसमें उन्होंने शंकराचार्य के “नीति सार” को पूर्णतया स्वीकृति दी है।
लिखने के लिए बहुत से पहलू हो सकते हैं लेकिन मैं आज बात करूंगा “राजनीति व्यवस्था” की।
अगर शासन व सत्ता को, गांव और शहर के पहलुओं से जोड़कर देखें तो “केंद्रीय शासन” गांव तथा शहर को लगभग सामान्य रूप से प्रभावित करता था। ग्रामीण अंचल में पंचायत व न्याय व्यवस्था अधिक सक्रिय थी तथा गांव की “पंचयात” को न्याय व शासन के लिए प्रचूर मात्रा में अधिकार प्राप्त थे। सामन्यतः एक कुनबा गांव की पंचायत का समर्थन करता था जिसके कारण राजा के अधिकारी “गांव की पंचायत” को सम्मान के दृष्टि से देखते थे। अगर गांव के पंचायत के मुख्य कार्य के बारे में बात करें तो वह यह था कि यह पंचायत जमीनों का बंटवारा करती थी, न्याय करती थी तथा पैदावार (खेती से उपजे अनाज) का एक अंश एकत्रित कर सरकार को समर्पित कर देती थी।”गांव की पंचायत” का इतना अधिकार क्षेत्र जानने के बाद; शायद आपके मन में यह उत्सुकता भी होगी कि पंचायत का मुखिया कैसे बनता था? पंचायत का चुनाव कैसे होता था ?
तो साहिबान, इस प्रश्न के उत्तर के लिए आपको ले चलूंगा साक्ष्यों के इर्द-गिर्द और बात करूंगा साक्ष्यों के आधार पर।प्राप्त शिलालेखों में स्पष्ट रूप से यह वर्णन है कि “सदस्यों का चुनाव गुणों के आधार पर होता था और दोषों के आधार पर निकाल दिया जाता था ।”सदस्यों को चुनने के लिए अलग-अलग समितियां बनाई जाती थीं, जिसके लिए वार्षिक चुनाव होते थे। सबसे प्रमुख बात यह है कि स्त्रियों को सामान्य दर्जा प्राप्त था और वह भी समितियों में भाग ले सकती थी।
शिलालेखों की माने तो कुछ बिंदुओं को हाईलाइट करना चाहूंगा।
• पदाधिकारियों की नियुक्ति करते समय चरित्र और योग्यता का ध्यान रखा जाता था तथा जाति एवं वर्ण व्यवस्था को पंचायत से परे रखा जाता था।
• अच्छा आचरण ना करने पर कोई भी सदस्य अपने पद से हटाया जा सकता था।
• सार्वजनिक रूपये – पैसे का ठीक से हिसाब ना दे सकने वाले सदस्य को ,अयोग्य ठहराया जाता था तथा उसे भी सदस्य पद से हटा दिया जाता था।
• पक्षपात को रोकने के लिए बनाए गए एक दिलचस्प नियम का वर्णन मिलता है। “सार्वजनिक पदों पर इन सदस्यों के निकट संबंधियों की नियुक्ति नहीं हो सकती थी।”
अगर गांव की स्वतंत्रता और स्वधीनता की बात करें तो नियम कुछ यों थे कि कोई भी सिपाही बिना आज्ञा या राजा आदेश के अनुसार किसी भी गांव में प्रवेश नहीं ले सकता था।
शंकराचार्य के “नीति सार” के अनुसार यदि जनता किसी भी पदाधिकारी की शिकायत करती है तो राजा को पदाधिकारी का पक्षधर नहीं बनना चाहिए बल्कि जनता के न्याय और कल्याण हेतु समर्थन करना चाहिए।
मेरे शब्दों की दुनिया के दोस्त अगर मैं यूं ही इतिहास में घूमता रहूँ तो न जाने कितनी बातें और कितने विषय हमारे सामने आएंगे।
कभी यह महसूस होगा कि बाहरी आक्रांताओं ने मुल्क़ पर आक्रमण कर हमें कमजोर किया और आपस में लड़ाया। कभी यह महसूस होगा कि स्थिति कैसी भी थी हिंदुस्तानीयों ने प्रतीक्षा किया और मौका पाते ही तुर्क, अफगान और अंग्रेजों को इस देश से बाहर किया।
सदियों पहले हम आजाद थे और आज भी आजाद है। सदियों पहले हमारी व्यवस्था बेहतर थी और आज भी हमारी व्यवस्था बेहतर है। दुर्भाग्य बस इतना है कि आधुनिक राजनीति ने हम लोगों को गुमराह किया तथा जिन नीतियों और व्यवस्थाओं का पालन जमीनी स्तर पर होना चाहिए वह कागजी स्तर पर हो रही हैं। “स्वतंत्रता में भी परतंत्रता का प्रभाव देखने को मिल रहा है।”
मेरे शब्दों की दुनिया के दोस्त आप स्वयं आकलन कर सकते हैं “आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था” की “सदियों पुरानी राजनीति व्यवस्था से।”
फिर मिलते हैं एक नए लेख के साथ…
घर पर रहें, सुरक्षित रहें। इति मोहन अबोध #Mohanabodh